Tuesday, November 3, 2009

बीते हुए दिन

बीते हुए दिन मिले भी तो क्या पायेगा
चंद बिखरे फूल, साये खिजां में पायेगा

मिले नहीं थे खुद से सब्रे करार में कभी
रह गयी है जिंदगी कोरी, न लिखी अभी

मुसव्विर से क्या गिला, तस्वीर बेमिसाल थी
जिससे रंग उड़ गए ये मेरे नसीब की स्याही थी

पुछ रहा है हर अस्म, क्या थे, कहाँ खोये थे
चिरादां थी जिंदगी, तमन्ना के रोशनदां न थे

तुम समझा रहे हो अभी, थोडा पहले मिल जाते
पत्थर पे पानी की बूंद, जमीर तो जगे होते

फुले हुए फूल से जलन क्यूँ रखे, 'साथी'
मुर्झे हुए मन की कभी सुलग नहीं होती

सैनपाल 'साथी'

तुम इतनी हसीन ...

तुम इतनी हसीन हो कि मैं तुम्हें प्यार कर नहीं सकता
गिला ये है कि मैं तेरे नसीब तक खुद को उठा नहीं सकता

यक-ब-यक सामने आना हरम सुने लगे है
इन्सान हूँ खुद का इताब कर नहीं सकता

महताबे किरन हसी सही चादर बना के सोया नहीं जाता
महसूस तो होता है पर तकदीर तो नहीं बनाया जाता

हुस्ने कँवल खिले जो बेवक्त हवा उसे कुम्लाहा सकती है
मैं कोई गुलदस्ता तो नहीं हूँ जो उसे सजा सकता

गुलिस्तां है खुशबू का बसेरा, मेरी बस्ती मुनासिफ नहीं है
मैं कोई फिजा तो नहीं हूँ जो खुशबू समां सकता

हर शै अपनी पहचान खो दे गर मेरे साये में आ जाती है
यूँ तुझे मिटाकर ये 'साथी' अपनी दुनिया बसा नहीं सकता

सैनपाल 'साथी'

Tuesday, October 27, 2009

बेवफाई के खुदा...

उफ़! बेवफाई के खुदा कुछ तो रहम बरफा
लुट चूका हूँ,अब भी कुछ बचा है मेरी तरफा

वो मुझ पर छाए जैसे धरती पर काली घटा
कहर में डूबा हुवा हूँ, कुछ तो रहम बरफा

मिलने का वादा करके वो हवा से हो गए है
पत्थर बनी है आंखें, कुछ तो रहम बरफा

हर तरफ जलवे और रानाइयां मौजूद है
तकदीर है शबे-गम, कुछ तो रहम बरफा

नसीब में थी इतनी खुशी कि झोली भर गयी थी
दूजे पल का हूँ दाईम, कुछ तो रहम बरफा

वो मेहरबां नजर दिल फिर हराभरा करे
जुबां पर जफा है 'साथी', कुछ तो रहम बरफा

सैनपाल 'साथी'

बेदिली से निकाल फेंके...

बेदिली से निकाल फेंके है शाखे-नौ-खेज को इन्हें
शजर से लिपटी बेले समझे हो, जो बंधे रखे है तुम्हे

ये हवा गुनगुनाती है, या सबे-बर्ताव दोहराती है
आप तो जाने है ये जुबां, किस बात की कसर है

सरे बाजार रुसवा किये हो, ऐसी छुरियां कब परजे हो
बेकसी की हर शाम पर, खलवते-जाम बक्शे जा रहे हो

पतझड़ में हूँ, हड्डियों के पिंजर से लटका है सुखा गरीबाँ
न हवा, न पानी न उजालें है, सावन को वश किये बैठे हो

सैनपाल 'साथी'

Sunday, October 25, 2009

अब के ये रैना...

अब के ये रैना गुजरें नहीं है
खाक ऐसी याद कि बदरे हुई है

कोई उन्हें कहे यादों को न भेजे हमे
गुस्ताख होती है ये बेचैन करे हमें
ये जो आये तो नींद को निगले है
खाक ऐसी याद कि बदरे हुई है

इनके सताए जो, तकदीर के आतीत बने है
गिरफ्त से छूटे जो, मौजों के मौला बने है
आना-जाना इनका, जीवन को कतरे है
खाक ऐसी याद कि बदरे हुई है

सैनपाल 'साथी'

जिया हूँ अब तक ...

जिया हूँ अब तक तुझे, ए जिंदगी
बता ये जीनत तुझे कैसी लगी
तराशी है जो वजूदे सूरत, ए जिंदगी
बता ये मूरत तुझे कैसी लगी

जिस तकदीर में बहारें थी
उसी का हो जाना नागवार था
जर्रा-जर्रा वीरां दिल
हर मायूस उमीद का सोगवार था
रूह मेरी जो खरीद सके
ऐसा कोई जमीरदार न था
अब थी बहारों की इल्तिजा, ए जिंदगी
बता ये रु-ब-रु तुजे कैसी लगी
जिया हूँ अब तक…

चंद सांसों के कतरें सही,
सांचा-ए-फितरत में न ढलें है अभी
गिरफ्त में ले ले जो दस्तुरें हालत,
न थे हावी हम पर कभी
तनहा थे तनहा रहेंगे,
दुनिया से अलग कलंदर है अभी
माना की दुनिया बदल न सके, ए जिंदगी
बता ये उन्वान तुजे कैसी लगी
जिया हूँ अब तक…

सैनपाल 'साथी'

फरियाद करें भी...

कोई फरियाद करें भी तो किस हुजुर में
यहाँ कातिल ही कुर्सी पर बदले हुए भेस में

सोचा था पूछेंगे हर हिसाब इश्क-ए-गुमराह का
अब हम ही मुव्किल थे खड़े किये कटघरे में

ढका हुवा था हर चेहरा ओढे हुए नकाब में
छिपा गर है हर मोहरा क्या जीते शतरंज में

नासूर बन गया था जख्म बारी-बारी के कुरेद में
अब सूली पर लटके हुए थे फरेबी के इल्जाम में

सैनपाल 'साथी'